Wednesday, January 30, 2013

वो दिन ही थे नासमझ

वो दिन ही थे नासमझ
जब अपने दिल को अपने चेहेरे पे पहने घूमती थी
आैर मन की हर बात आॅंखोंको छूती थी

हसीन थी दुनिया,दुनियादारी नही थी
प्यार लगता था किसी
गीली- सी, झुकी हुई टहनी का
आेस भरा खिला खिला फूल
आैर जिंदगी का हर कतरा कवितासे भीगा हुआ करता था

वाे दिन ही थे नासमझ
जब राहे गाती थी
सखिया किलकिलाती थी
रोशनदान हॅंसते थे
खुशनुमा सा था माैसम

अजीबो गरीब शक्स भी थे कुछ
कुछ खाेये हुए अपनी ही दुनिया में
कुछ गुस्सैल पेड- कुछ खामोश कहानियांॅ
कुछ स्नेह बरसाने वाले मेघ भी
रहते ही थे इर्द गिर्द जिंदगी के
इन सब से घिरी हुई रहती थी तब....

वो दिन ही थे नासमझ
जिनके साथ चलते चलते
एक रोज पता चला कि शहर ने
चढते सूरज की भडकती चिन्गारी को मेरे साथ कर दिया

आाेस की बूंॅदे सूख गयी
जलने लगे फूल
मैने मुडकर उन मेघोंकी तरफ देखा-
कोई नही था वहांॅ!
वे अजीबो गरीब शक्स
वे खोए हुए लोग
वे खामोश कहानियंॅा....
मानो जैसे सपना था कोई दूसरी दुनिया का!
शायद वो जहाँ पिघलकर
मिट्टी के नीचे कहीं लुप्त हो गया था
शायद मैं नींद में ही चल रही थी!
शायद.....


सूरजने अपनी भडकती चिन्गारीको संॅभाल लिया है अब..
जो जलाती थी उस लाै को अपने अंदर समेट लिया है मैंने
अपना सफर तय करके आई हूंॅ यहाँ
जहाँ से शुरुआत हुई थी
ढूँढती हूंॅ उन दिनोंको नासमझ-

दिल से आॅंखोंतक पहुंॅचती लाै कम राैशन है अब
फिर भी देखती हूंॅ
शायद वाे दिन यहीं कहीं मिले आसपास

उनकी जडोंको ढूॅंढती हूंॅ
हाथोंकी त्वचा ढूंॅढती है उनकी महक हवा में
पैरोंके तलवे पुकारते है उस मिट्टीको
जिनसे कभी वाे वाकिफ हुआ करते थे

सूखे पेडोंतले परछाइयांॅ अजनबियोंकी तरह देखती है मुझे
आंॅखोंमें सवाल लिये

जाने कहांॅ चले गए वो दिन!
न जाने वाे दिन थे भी या नही!

या ये दिल ही था नासमझ!

उज्वल

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